Ekaant aur akelepan me antar hai

एकांत और अकेलेपन में बहुत अंतर है । दोनों एक जैसे लगते हैं, पर ऐसा है नहीं । एकांत और अकेलापन दोनों में हम अकेले ही तो होते हैं, परंतु अंतर क्या है दोनों में ? भारी अंतर है दोनों के बीच । अकेलापन तब होता है, जब हम अपने अकेले रहने से व्यथित होते हैं, दुखी होते हैं, परेशान होते हैं । हमारा मन उस अकेलेपन से भागने लगता है और अपनों की भीड़ में समा जाना चाहता है । अकेलेपन में एक दुखद और कष्टप्रद अनुभव होता है । एकांत वह है, जहाँ हम अकेले होने में प्रसन्न एवं खुश होते हैं । एकांत हमें शांति एवं सुकून प्रदान करता है। एकांत में हमारे जीवन का सुमधुर संगीत फूटता है ।

Ekaant aur akelepan me antar hai

अकेलापन और एकांत

अकेलापन एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की सहज घटना है । सामान्य रूप से व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव करता है; जबकि एकांत योगी का साथी-सहचर है । सामान्य व्यक्ति अकेलेपन से घबराता है और उससे बचना चाहता है और इससे बचने के लिए वह भीड़ की और भागता है । उसके लिए अकेलापन किसी दंड से कम नहीं है; क्योंकि उसका मन कभी भी अकेलेपन के इस अनुभव को बरदाश्त नहीं कर पाता है । इसके विपरीत योगी को कभी भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता है, बल्कि उसे तो भीड़ से समस्या होती है; क्योंकि योगी एकांत में ही अपनी अंतर्यात्रा की शुरुआत करता है, उसकी सभी आंतरिक विभूतियाँ उसे एकांत में ही उपलब्ध होती हैं ।

सामान्य रूप से अकेलेपन का एहसास हर कोई अपने जीवन में करता है, परंतु लंबी अवधि तक इसको अनुभव करना अनगिनत स्रमम्याओं को जन्म देता है । अधिक समय तक अकेलेपन का अनुभव हमारे मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव डालता है । अकेलापन-तनाव, चिंता, व्यग्रता और अवसाद का कारण बनता है । ये मनोविकार हमारे समग्र व्यक्तित्व क्रो प्रभावित करते हैं ओर हमारा व्यक्तित्व कुंठाग्रस्त हो जाता है । इससे व्यक्तित्व का विकास ‘ भी अवरुद्ध हो जाता है ।

इस अकेलेपन को महसूस करने की कई वजहें होती हैं, जैसे-पारिवारिक परेशानी, सामाजिक समस्या, वैयक्तिक उलझन, अपनों से दूर होना या उनकी उपेक्षा, भीड़ में स्वयं को अकेला पाना आदि । कई बार तो ऐसा होता है कि हम भीड़ में भी स्वयं को अकेला पाते हैं । भीड़ में कोई भी अपना नहीं लगता है और हम किसी कोने में खड़े रहने के लिए विवश हो जाते हैं ।

भीड़ में अकेलापन इसलिए होता है; क्योंकि हम लोगों से अर्थपूर्ण संबंध स्थापित नहीं कर पाते हैं, संबंध नहीं बना पाते हैं और हम सामंजस्य नहीं रख पाते हैं । जब हम औरों से सामंजस्य एवं सहज संबंध बनाने में सक्षम हो जाते हैं तो फिर भीड़ में अकेलापन महसूस नहीं करते हैं । अकेलेपन का सबसे बड़ा कारण है… अपने मन और भावनाओं पर नियंत्रण का न हो पाना । जब भी हमारी भावना उद्वेलित एवं आंदोलित होती है तो लगता है कि कोई हमें ठीक से समझ नहीं पा रहा है या हम अपनी बात किसी को समझा नहीं पा रहे हैं । इन उद्वेलित भावनाओं का परिणाम अकेलापन होता है । अपनों की भीड़ में हम स्वयं को अकेला खड़ा पाते हैं, लगता है कोई अपना नहीं है । ऐसी स्थिति यदि लंबे समय तक बनी रहती है तो हम अवसाद से धिर जाते हैं और हम गंभीर मानसिक रोगों की और अग्रसर होने लगते हैं ।

अकेलापन विशुद्ध रूप से मानसिक एवं भावनात्मक समस्या है । हमें जब यह लगता है कि किसी के बिना हम अधूरे हैं, किसी के बिना हमारा जीवन खाली लगने लगता है तो हम अकेलापन महसूस करते हैं । अकेलापन अर्थात अधूरापन एवं खालीपन । अकेलापन अर्थात अपने जीवन में इकट्ठी भीड़ को खो देने का एहसास, अपनों से दूर हो जाने का एहसास । अकेलापन हमें भावनात्मक रूप से अतृप्त करता है और हम इस अकेलेपन को दूर करने के लिए तरह-तरह की तरकीबें खोजते हैं । संगीत सुनते हैं, किसी से मोबाइल में बात करने लगते हैं, वॉट्सएप, फेसबुक आदि में व्यस्त हो जाते हैं ।

ऐसा नहीं होने से हम अकेलेपन से घबराने लगते हैं और ये तमाम उपाय उस घबराहट को दूर करने के लिए करते हैं । जब हम भावनात्मक रूप से संतुष्ट एवं स्थिर होते हैं तो कभी भी अकेलेपन से हमारा सामना नहीं होता है ।

जब हम अपने किसी मनपसंद काम में व्यस्त हो जाते हैं, तब भी हमें कभी अकेलेपन का अनुभव नहीं होता है । जिस काम मे हमारा मन नहीं लगता है, वह बोझिल हो जाता है और हम वहां पर स्वयं को अकेला खडा पाते हैं । लगता है कि इसे छोड़कर कहीं चले जाएँ या किसी से बात कर लें या फिर कुछ और कर ले । अकेलेपन का समुचित एवं सहज समाधान है कि हम अपने मन को शांत एवं भावनाओं को स्थिर करें । जो अपने मन पर नियंत्रण रखना सीख जाता है और जो अपनी भावनाओं को स्थिर करना समझ जाता है वह कभी भी अकेलेपन का एहसास नहीं करता है और एकांत में रमने लगता है। उसके लिए एकांत किसी भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि से कम नहीं होता है । एकांत में वह अपने जीवन के उद्देश्य एवं अपने लक्ष्य से परिचित होने लगता है । वह अपने जीवन का दिव्य संगीत इसी एकांत में सुन पाता है ।

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अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित किया जा सकता है, रूपांतरित किया जा सकता है । जब मन को शात एवं भावना को स्थिर किया जाता है तो अकेलेपन की तन्हाई एकांत के सरगम में बदलकर एक दिव्य संगीत की सृष्टि करती है और संगीत के इस स्वर में अकेलापन बुलबुले के समान विलीन हो जाता है फिर कहीं भी किसी को खोजने की जरूरत नहीं होती है और न कहीं जाने की आवश्यकता पड़ती है, न किसी को बुलाने की और न किसी में अपनेपन की तलाश रहती है । एकांत में अनगिनत रहस्यों से सिमटा हुआ जीवन परत-दर-परत खुलने लगता है और अज्ञात के विविध आयाम प्रकट होने लगते हैं ।

अकेलेपन में जिसे सोचकर ही भय उत्पन्न होने लगता है, और उस भय से भागने का मन करता है, पलायन का मन करता है, वही अकेलापन जब एकांत में रूपांतरित हो जाता है तो जीवन की वास्तविकता से हमारा परिचय होता है कि हमारे अंदर कितनी अदभुत एवं आश्चर्यजनक विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, कितने रहस्य समाये हुए हैं, कितनी परतें पड़ी हुई हैं, वे सब एकांत में धीर-धीरे प्रकट होने लगते हैं । एकांत में ही जीवन की गहराई में प्रवेश पाने का प्रारंभ किया जा सकता है । जिस प्रकार समुद्र में अपार लहरों की जलधार बनी रहती है और इन लहरों को देखकर कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि समुद्र के अंदर बहुमूल्य रत्नों का खदान होगा, बेशकीमती चीजें होंगी, परंतु जो इन लहरों को चीरकर समुद्र के अंदर प्रवेश करता है, उसे यह सब हस्तगत होता है । ठीक उसी प्रकार बाहरी जीवन के कोलाहल से दूर एकांत में प्रवेश करने पर वास्तविकता से परदा उठता है और इसके रहस्य का पता चलता है । यह सब एकांत में ही संभव है । इसलिए अकेलेपन से पलायन करने की जरूरत नहीं है, बल्कि आवश्यकता है कि इसे सहजता से एकांत में परिवर्तित कर दिया जाए ।

एकांत में जीवन का सौंदर्य मुखर हो उठता है, जैसा कि एक कवि ने लिखा है…

मुकुल-मुकुल पर विलास,
कलि-कलि पर हास,
तृण-तृण पर तरल लास,
अधरों पर जीवन मुस्काये ।
स्वागत जीबन ! आज,
श्रीसुख के सजे साज,
एकांत मौन का राज,
अकेलेपन का भय गल जाए।

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